आलोक कौशिक,
मानवता को शर्मसार करने वाली खबर बदस्तूर जारी है। कड़े कानून के बावजूद महिलाओं, युवतियों और बच्चियों के साथ यौन हमले में कमी नहीं आ रही है। देश में कहीं न कहीं हर बलात्कार और यौन शोषण की घटनाएं सुनने और पढ़ने को मिलती रहती है।
ऐसी ही एक मानवता को शर्मसार करने वाली घटना बिहार के बेगूसराय से सामने आई है। यहां एक मनचले ने लोक, लाज और मानवीय संवेदना को ताख पर रहते हुए 75 साल की वृद्धा के साथ दुष्कर्म की घटना को अंजाम दिया। मामले की जानकारी पुलिस को मिली तो वो भी सन्न रह गई।
घटना के दो दिन बाद जब पुलिस को इसकी शिकायत मिली तो पुलिस मामले की जांच में जुट गई। घटना जिले के तेघड़ा थाना क्षेत्र के बरौनी पंचायत की है। बरौनी एक निवासी रामसागर साह (काल्पनिक नाम) की पत्नी फूलो देवी (काल्पनिक नाम) पत्ता चुनने के लिए बगल के बगीचे में गई थी। पीड़िता के मुताबिक दोपहर के वक्त में एक युवक वहां पहुंचा और उसे इशारे से बुलाने लगा।
इस दौरान जब वृद्धा उसके नजदीक गई तो युवक उसे अपनी गोद में उठाकर दूर जंगल में ले गया और उसके साथ जबरन दुष्कर्म किया। पीड़िता का पति जो एक रिक्शा चालक है को इस घटना की जानकारी उसके गांव वालों के माध्यम से मिली। पत्नी के साथ रेप की जानकारी मिली तो वो दौड़ा-दौड़ा अपने घर आया तब तक गांव के ही कुछ लोग वृद्धा को एक निजी नर्सिंग होम में लेकर चले गए थे। बाद में लोगों के कहने पर पीड़िता के पति ने इस बात की शिकायत पुलिस में की। पुलिस के अनुसार यह मामला तीस अप्रैल का है। पुलिस ने पीड़िता के बयान पर के आधार पर मामले को दर्ज कर छानबीन शुरू कर दी है। डीएसपी कुंदन कुमार सिंह ने बताया कि जब पीड़िता के साथ दुष्कर्म हुआ तो सबसे पहले उसने अपने गांव के लोगों को और गांव वालों ने मीडिया के लोगों को इसकी जानकारी दी लेकिन पुलिस को इसकी कोई भी जानकारी नहीं दी।
पुलिस के संज्ञान में आने के बाद पुलिस ने पीड़िता का मेडिकल जांच करवाया। अभी तक जांच रिपोर्ट नहीं आई है। डीएसपी के मुताबिक जांच रिपोर्ट आने के बाद इस मामले की सच्चाई सामने आएगी।
आज यदि हम बलात्कार के आरोपितों की प्रोफाइलिंग करें तो पाएंगे कि इनमें केवल गुंडे और असामाजिक तत्व ही शामिल नहीं हैं। संत नामधारी बाबा, पुलिसकर्मी, वकील, जज, मंत्री, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, उच्चाधिकारी, नामी-गिरामी और लोकप्रिय फिल्म अभिनेता और निर्देशक, सामाजिक कार्यकर्ता और नामचीन पत्रकार तक ऐसी यौन-हिंसा के आरोपित और सजायाफ्ता रहे हैं। निकट के परिजन, दोस्त, प्रेमी और जानकार से लेकर पिता, भाई और पति तक ऐसी हिंसा में लिप्त पाए गए हैं। ऐसे में क्या कहा जाए? क्या यह किसी खास आय वर्ग, आयु वर्ग, पेशा, क्षेत्र या शिक्षित-अशिक्षित होने तक सीमित है? नहीं। इसलिए इसे एक सभ्यतामूलक समस्या मानना ही ठीक रहेगा। तभी हम इसके समाधान की ओर सही दिशा में बढ़ पाएंगे।
बलात्कार जैसी हिंसा यदि ज्यादातर हमारी यौनिकता से प्रेरित है, तो इसे बिल्कुल जीव-वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर समझने-समझाने की जरूरत होगी। यौन इच्छा, यौन संपर्क और प्रजनन की प्रक्रिया को जब बिल्कुल वैज्ञानिक तरीके समझने का प्रयास होगा, तभी उसकी रहस्यात्मकता, कौतूहलता और उससे जुड़ी आक्रामकता का शमन हो सकेगा।
यौन संबंधी हमारी ग्रंथियां, हमारे हार्मोन किस तरह काम करते हैं इसे ठीक से समझने-समझाने की जरूरत होगी। इसके अलावा इसे मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी इस रूप में समझने-समझाने की जरूरत होगी कि किस सीमा को छूने या पार करने के बाद यह मनोरोग की श्रेणी में आ जाता है, जिसका उपचार किया जाना चाहिए।
यौन-विकृतियों से जुड़े क्षणिक मनोविकारों को आत्मानुशासन, आत्मनियंत्रण, मानसिक दृढ़ता, ध्यान या प्राणायाम के लगातार अभ्यास से किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है, उसे भी बिना किसी पूर्वाग्रह के सीखना-सिखाना होगा। जीवन-शैली और दिनचर्या को भी समझने की जरूरत हो सकती है। हम और हमारे बच्चे क्या पढ़ते हैं, क्या देखते-सुनते हैं, क्या हम और हमारे बच्चे किसी व्यसन का शिकार तो नहीं हैं, हमारे घर और आस-पास का वातावरण हमने कैसा बनाया हुआ है, इस सबके प्रति सचेत रहना होगा। इंटरनेट और सोशल मीडिया इत्यादि का विवेकपूर्ण और सुरक्षित ढंग से उपयोग सीखना और सिखाना भी इसी निजी सतर्कता का हिस्सा है।
गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण और माता-पिता के होते हुए भी लावारिसी से भरे एक देश में क्या यह सब कर पाना संभव है? एकदम संभव है। और इसके लिए केवल सरकारों की ओर देखना सही नहीं है। कुछ काम सरकारें भी करेंगी। जैसे कानून-व्यवस्था, न्यायिक प्रक्रिया, जन-जागरूकता और शैक्षणिक प्रयास। लेकिन असल काम परिवार, समुदाय, नागरिक समाज और विद्यालयों के स्तर पर ही होना है। जो भी साधन और साधनाएं हमारे पास उपलब्ध हैं उन सबका इष्टतम उपयोग हो। समाजीकरण, मूल्यपरक शिक्षा और प्रबोधन की प्रत्यक्ष प्रक्रिया से जो बाहर हैं, उन्हें इसमें शामिल किया जाए।
यौनकेंद्रितता से इतर बलात्कार को पितृसत्ता या समाज में पुरुषों के प्रभुत्व, आधिपत्य या वर्चस्व की मानसिकता आदि से भी जोड़कर देखा जाता है। लेकिन ऐसा देखा गया है कि बलात्कार के शिकार पुरुष भी शर्म के मारे आत्महत्या कर लेते हैं। यानी हमारा पुरुषोचित अहंकार भी बहुत भुरभुरा है, नकली है। इसलिए गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि यह खोखला पुरुषोचित अहंकार भी वास्तव में समानुभूति, अहिंसा और साथी मनुष्य की मानवीय गरिमा के प्रति संवेदनशीलता का अभाव ही है। समानुभूति यानी दूसरे को कैसा महसूस होता है इसे खुद को उसके स्थान पर रखकर समझना। जैसे बलात्कारी को यदि यह होश आ जाए कि पीड़िता की जगह मैं खुद हूं और कोई अन्य मेरे साथ यही कर रहा है, तो उसे कैसा महसूस होगा। इतना न हो पाए, तो यदि वह पीड़िता के स्थान पर उस स्त्री को रखकर सोचे जो संसार में उसे सबसे अधिक प्रिय है, जैसे अपनी दादी-नानी, मां, बहन, पत्नी, बेटी, मित्र, प्रेमिका या शिक्षिका, जो भी स्त्री चरित्र उसे सबसे अधिक प्रिय हो, उसकी कल्पना करे, तो भी उसमें समानुभूति जाग सकती है, करुणा जाग सकती है।
यह समानुभूति का अभाव ही तो है कि बलात्कार पीड़िता या सर्वाइवर के प्रति बाद में भी डॉक्टर, पुलिस, वकील और न्यायिक अधिकारियों तक का रवैया इतना संवेदनहीन होता है कि कई महिलाएं मुकदमा वापस ले लेती हैं और कई तो रिपोर्ट तक नहीं करती हैं। किशोर न्याय परिषद् (नाबालिगों के कोर्ट) से जुड़ीं एक महिला सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है कि पिता और दादा की उम्र तक के वकील पीड़ित बच्चियों से ऐसे घृणित सवाल इतने संवेदनहीन तरीके से पूछते हैं कि ज्यादातर बच्चियों को बलात्कार से भी अधिक सदमें से कई-कई बार गुजरना पड़ता है। जबकि इस बारे में तय नियम और दिशा-निर्देश भी मौजूद हैं, लेकिन उनका पालन शायद ही भारत के किसी थाने या न्यायालय में होता होगा। इसलिए फांसी देने या नपुंसक बना देने से इसे रोकना असंभव है। त्वरित न्यायबोध और पीड़ितों की संतुष्टि के लिए ऐसे दंडात्मक प्रयास भी चलें। लेकिन यह वास्तविक समाधान नहीं होगा। जबकि समानुभूति सीखने-सिखाने और पैदा करने का रास्ता बहुत मुश्किल और लंबा जरूर है, लेकिन असंभव नहीं।